ज़रूर चश्म-ए-तमाशा चमन पे नाज़ करे मगर बहार-ओ-ख़िज़ाँ में तो इम्तियाज़ करे मिरी हयात का मक़्सद है सिर्फ़ लज़्ज़त-ए-ग़म कोई ये सिलसिला-ए-ग़म ज़रा दराज़ करे जुनूँ के दौर में हो जिस को शौक़-ए-गुल-चीनी चमन में कैसे वो काँटों से एहतिराज़ करे यही है ख़ालिक़-ए-जज़्बात का करम शायद तुम्हें ख़ुशी से हमें ग़म से सरफ़राज़ करे न कीजिए किसी गुस्ताख़ी-ए-जुनूँ का मलाल किसे है होश कि फ़र्क़-ए-नियाज़-ओ-नाज़ करे रह-ए-वफ़ा में तमन्ना-ए-इल्तिफ़ात है कुफ़्र जो जी में आए वो हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ करे जबीन-ए-शौक़ तो रख दी है मैं ने दर पे तिरे ये तेरा काम है बाब-ए-करम भी बाज़ करे सुना है राज़-ए-हक़ीक़त उसी हिजाब में है जो दीदा-वर हो वही अज़्मत-ए-मजाज़ करे वो कोई दिल नहीं पत्थर है अस्ल में 'अशरफ़' जो आदमी को मोहब्बत से बे-नियाज़ करे