जाता है कहीं ख़ून से निस्बत का असर भी तलवार जो बोलेगी तो ले जाएगी सर भी पहले था बहुत फ़ासला बाज़ार से घर का अब एक ही कमरे में है बाज़ार भी घर भी देखें तो नज़र आती है सद-रंग ये दुनिया बरतें तो हुई जाती है बे-रंग नज़र भी इस शहर में अश्कों का लिखा कौन पढ़ेगा जब ख़ून उछलता है तो बनती है ख़बर भी ये सोच के हम ने कभी जुगनू नहीं पकड़े निकलेगा अंधेरे से अभी नूर-ए-सहर भी क्यों हक़ की सदा आती नहीं बाँग-ए-दरा से ऐ ख़्वाहिश-ए-सद-रंग ज़रा देख इधर भी हर शख़्स लिए गर्द-ए-सफ़र घूम रहा है इक खेल सा लगता है 'ज़िया' अब तो सफ़र भी