जहान-ए-गुल में अगर दश्त-ए-जाँ नहीं होता कभी ग़ज़ाल-तलब मेहमाँ नहीं होता खुले हैं बारा-दरी के तमाम दरवाज़े मगर वो चेहरा कहीं से 'अयाँ नहीं होता ये और बात कि लुत्फ़-ए-शनावरी न मिले प आँसुओं का समुंदर कहाँ नहीं होता तड़प उठी थी जहाँ तिश्नगी की आख़िरी लौ वहाँ से अब कोई दरिया रवाँ नहीं होता 'अता न करता अगर वो मिज़ाज-ए-दरवेशी तो मेरी ज़ात से रौशन जहाँ नहीं होता मचलता रहता है क्यों अब भी तितलियों के लिए ये तिफ़्ल-ए-इश्क़ मिरा क्यों जवाँ नहीं होता है मेरे सामने ख़ुद अपना आइना भी 'ज़िया' मिरी निगाह से ओझल जहाँ नहीं होता