जाते-जाते गले ये ग़म पड़ जाता है अच्छा-ख़ासा बंदा कम पड़ जाता है नाज़-ओ-अदा से चलने वाला क्या जाने दिल की ज़मीं पे नक़्श-ए-क़दम पड़ जाता है सुनते हैं मज़लूम की आह-ओ-ज़ारी से ज़ालिम की तक़दीर में ख़म पड़ जाता है चाहे जितना भी सामान किया जाए कुछ न कुछ तो फिर भी कम पड़ जाता है शामिल हो जब तेरे लहजे में तल्ख़ी यूँ लगता है शहद में सम पड़ जाता है चलने लगती है जब बात मोहब्बत की बीच में कोई अहल-ए-सितम पड़ जाता है