कलाम अपना तभी तो अक्सर से मुख़्तलिफ़ है जो सोचते हैं वो पेश-ए-मंज़र से मुख़्तलिफ़ है कहाँ से हम अपनी गर्दिशों का जवाज़ ढूँडें हमारा महवर ज़मीं के महवर से मुख़्तलिफ़ है इसी लिए तो क़ुबूलियत के हैं दर मुक़फ़्फ़ल दु'आ तुम्हारी मिरे मुक़द्दर से मुख़्तलिफ़ है तभी तो बैठे हैं मंज़रों पर जमाए आँखें जो उन का ज़ाहिर है उन के अंदर से मुख़्तलिफ़ है तराशते हैं जो आज़रान-ए-ख़याल अक्सर वो एक पैकर तुम्हारे पैकर से मुख़्तलिफ़ है 'मुनीर' दोनों हैं नीलगूँ वुस'अतों के हामिल मगर समंदर का ख़्वाब अम्बर से मुख़्तलिफ़ है