ज़ुल्फ़-ए-मोहब्बत बरहम बरहम मी रक़सम वज्द में है फिर चश्म-ए-पुर-नम मी रक़सम इश्क़ की धुन में आँखें नग़्मा गाती हैं घोल मिरे जज़्बों में सरगम मी रक़सम साइयाँ ज़ख़्म तिरी ही जानिब तकते हैं आज लगा नैनों से मरहम मी रक़सम मेरी मस्ती में सरशारी तेरी है मेरे अंदर तेरे मौसम मी रक़सम वहदत का इक जाम पिला दे आँखों से एक नज़ारा देखूँ पैहम मी रक़सम आ सांवल आ ऐसे आन समा मुझ में रक़्साँ हों दो रूहें बाहम मी रक़सम फैल गई हर गाम 'रबाब' मोहब्बत यूँ मी रक़सम मी रक़सम रक़सम मी रक़सम