ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीन-ए-यार क़हरी है क्या क़यामत का नाग ज़हरी है धूप सीं ग़म की ताज़गी है उसे दिल नहीं है गुल-ए-दो-पहरी है ज़ाकिर-ए-ग़म कूँ दिल के हल्क़े में नाला-ओ-आह ज़िक्र-ए-जहरी है दामन-ए-यार नहीं कनारी-दार सफ़्हा-ए-जदवल-ए-सुनहरी है वहशी-ए-दश्त-ए-बे-ख़ुदी है 'सिराज' गरचे आलम के निज़्द शहरी है