ज़ुल्मत-ए-शब से उलझना है सहर होने तक By Ghazal << अक्स पानी में जल गए कितने टूटता हूँ कभी जुड़ता हूँ ... >> ज़ुल्मत-ए-शब से उलझना है सहर होने तक सर को टकराना है दीवार में दर होने तक अब तो उस फूल की निकहत से महकती है हयात ज़ख़्म-ए-दिल ज़ख़्म था तहज़ीब-ए-नज़र होने तक दिल ही जलने दो शब-ए-ग़म जो नहीं कोई चराग़ कुछ उजाला तो रहे घर में सहर होने तक Share on: