जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं ऐसे पापड़ बहुत से बेले हैं गह हुज़ूरी है गाह है दूरी गह अकेले हैं गह दो-केले हैं अस्प-ए-ताज़ी नज़र नहीं आते सो खुरों से भरे तवेले हैं कहते हैं याँ जिसे क़िमार-ए-इश्क़ खेल ऐसे बहुत से खेले हैं जीते हैं वो क़िमार-ए-इश्क़ में यार जान पर अपनी जो कि खेले हैं ठहरे कब जंग-ए-हुस्न में ये शैख़ एक मुद्दत के ये भगेले हैं पास अपने दुई का नाम नहीं जब से पैदा हुए अकेले हैं न दिखाना लहद में आँखें नकीर पास अपने भी क़ुल के ढेले हैं कुफ़्र-ओ-दीं का हो फ़ैसला क्यूँकर एक मुद्दत के ये मनझेले हैं दैर-ओ-काबा की भीड़-भाड़ है क्या ऐसे देखे बहुत से मेले हैं गिर्या-ए-पुर-असर की शिद्दत है साफ़ आब-ए-बक़ा के रेले हैं भेजा अपना ख़याल उस बुत ने जब सुना 'मुंतही' अकेले हैं