जवानी की उमंगों का यही अंजाम है शायद चले आओ कि वा'दे की सुहानी शाम है शायद जो तिश्ना था कभी साक़ी वो तिश्ना-काम है शायद उसी बाइ'स तो नज़्म-ए-मय-कदा बदनाम है शायद हँसी के साथ भी आँसू निकल आते हैं आँखों से ख़ुशी तो मेरी क़िस्मत में बराए-नाम है शायद जिसे मय-ख़्वार पी के मय-कदे में रक़्स करते हैं तिरी आँखों की मस्ती साक़ी-ए-गुलफ़ाम है शायद उड़ाई शम्अ' ने जब ख़ाक-ए-परवाना तो मैं समझा मोहब्बत करने वालों का यही अंजाम है शायद जो अब तक मय-कशों के पास मुद्दत से नहीं आई अभी गर्दिश में ख़ुद ही गर्दिश-ए-अय्याम है शायद मैं दानिस्ता अब उन के सामने ख़ामोश हूँ 'जाफ़र' ख़मोशी भी मिरी अब मोरिद-ए-इल्ज़ाम है शायद