मैं कि तन्हा ए'तिबार-ए-ज़ात खोने से हुआ जो हुआ वो दिल में शक का बीज बोने से हुआ इक ज़रा से दाग़-ए-रुस्वाई का इतना फैलना ऐसा दामन को किसी जल्दी में धोने से हुआ मैं ने देखा है चमन से रुख़्सत-ए-गुल का समाँ सब से पहले रंग मद्धम एक कोने से हुआ मैं ही बनता हूँ फ़साद-ए-आब-ओ-गिल का हर सबब किस क़दर नुक़सान मेरा मेरे होने से हुआ एक हंगामा हुआ जो रात के ऐवान में रौशनी का ख़ार-ए-ज़ुल्मत में चुभोने से हुआ क्या बताऊँ किस तरह जाता रहा ज़ाद-ए-सफ़र ये ज़ियाँ बस एक पल रस्ते में सोने से हुआ सर पे ही रहता अगर तो सर का बचना था मुहाल बोझ मेरा कम इसे हर आन धोने से हुआ ज़िंदगी घिसती रही 'शाहीं' बसर होने के साथ पैरहन का रंग फीका रोज़ धोने से हुआ