वो जिस पे तुम्हें शम-ए-सर-ए-रह का गुमाँ है वो शो'ला-ए-आवारा हमारी ही ज़बाँ है अब हाथ हमारे है इनाँ रख़्श-ए-जुनूँ की अब सर पे हमारे कुलह-ए-संग-ए-बुताँ है बस फेर के मुँह ख़ार क़दम खींच रहे थे देखा तो निहाँ क़ाफ़िला-ए-हम-सफ़राँ है चुभते ही बनी ख़ार-सिफ़त पा-ए-ख़िज़ाँ में क्या कीजे बहुत हम को ग़म-ए-लाला-रुख़ाँ है काम आए बहुत लोग सर-ए-मक़्तल-ए-ज़ुल्मात ऐ रौशनी-ए-कूचा-ए-दिल-दार कहाँ है ऐ फ़स्ल-ए-जुनूँ हम को पए-शग़्ल-ए-गरेबाँ पैवंद ही काफ़ी है अगर जामा गिराँ है 'मजरूह' कहाँ से गुहर-ए-गंदुम-ओ-जौ लाएँ अपनी तो गिरह में यही चश्म-ए-निगराँ है