जज़्बा-ए-इश्क़ का मेयार सँभाले हुए हैं आज तक हम रसन-ओ-दार सँभाले हुए हैं उस का दीदार कहाँ उस का तो साया भी नहीं सिर्फ़ याद-ए-लब-ओ-रुख़्सार सँभाले हुए हैं गुनगुनाते नहीं अब हम भी पुरानी ग़ज़लें वो भी पाज़ेब की झंकार सँभाले हुए हैं आबिद-ओ-ज़ाहिद-ओ-वाइज़ तो हुए गोशा-नशीं अब हरम को ये गुनहगार सँभाले हुए हैं बाग़बाँ करते थे फूलों की हिफ़ाज़त पहले आज ये फ़र्ज़ ख़स-ओ-ख़ार सँभाले हुए हैं थे क़यामत के से आसार मगर ख़ैर हुई अम्न का ज़िम्मा रज़ाकार सँभाले हुए हैं शैख़ साहब का है इस दौर में जीना मुश्किल ये ग़नीमत है कि दस्तार सँभाले हुए हैं