झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में तब से गिरे पड़े हैं जहान-ए-ख़राब में कब का वो जा चुका था खुली आँख जब मिरी मैं उस को देखता ही रहा जैसे ख़्वाब में रंगीनी-ए-लिबास का जम्म-ए-ग़फ़ीर है शायद कि मैं न आऊँ तिरे इंतिख़ाब में मुझ पर ज़कात हुस्न-ए-सुख़न की हुई है फ़र्ज़ शामिल हुआ हूँ शेर के अहल-ए-निसाब में उट्ठो कि आईना भी कहीं का कहीं गया रह जाओगे यहीं जो रहोगे हिजाब में शायद क़लम दवात की फ़ुर्सत न हो उसे मेरे ही ख़त को भेज दिया है जवाब में छुप-छुप के देखता था तग़ाफ़ुल की आड़ में उस ने बरत लिया है मुझे इज्तिनाब में वो शम-ए-इंतिज़ार की लौ कर गया मुझे मैं रौशनी-ए-तबअ से हूँ पेच-ओ-ताब में आईं हवाएँ दूर से बाग़-ए-बहिश्त की ख़ुश्बू भी आई देर से कार-ए-सवाब में आईना-ए-निगाह में तालीम और थी बर-अक्स हो गया जो लिखा था किताब में मैं रहने वाला शाम ओ सहर के परे का हूँ डाला गया हूँ शाम ओ सहर के हिसाब में इस बे-हिसी के बीच में 'एहसास' की ग़ज़ल देखो तो ये सुकूत सुख़न के जवाब में