कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई दरख़्त काट गया है हरे-भरे कोई अजीब रुत है ज़बाँ ज़ाइक़े से है महरूम तमाम शहर ही चुप हो तो क्या करे कोई हमारे शहर में है वो गुरेज़ का आलम चराग़ भी न जलाए चराग़ से कोई ये ज़िंदगी है सफ़र मुंजमिद समुंदर का वहीं पे शक़ हो ज़मीं जिस जगह रुके कोई पलट कर आ नहीं सकते गए हुए लम्हे तमाम उम्र भी अब जागता रहे कोई मिसाल-ए-अक्स मुक़य्यद हिसार-ए-ज़ात में हूँ वो मौज हूँ जिसे रस्ता न मिल सके कोई फिर इस के बाद बिखर जाऊँ रेत की सूरत बस एक बार मुझे टूट कर मिले कोई हुज़ूर-ए-हुस्न ये दिल कासा-ए-गदाई है हूँ वो फ़क़ीर जिसे भीक भी न दे कोई सवाल उस ने भी कोई नहीं किया 'शहज़ाद' जवाब बन न पड़े जिस के सामने कोई