झलकता है ग़म मेरी हर इक ख़ुशी से शिकायत है मुझ को तिरी बे-रुख़ी से मैं अपने तईं मर चुका था कभी का मगर जी रहा हूँ तुम्हारी ख़ुशी से ख़ुशी में मज़ा है न अब ग़म में लज़्ज़त ये काँटा निकालो दिल-ए-ज़िंदगी से वो और होंगे जिन को है चाहत का अरमाँ मुझे प्यार है आप की दुश्मनी से कहाँ तक जियूँ आसरे पर करम के मैं बाज़ आया बस आप की दोस्ती से मिटी हर तरह जान 'साहिर' की लेकिन तिरा ग़म न बहला ग़म-ए-ज़िंदगी से