झिलमिलाते हुए आँखों में सितारे लम्हे मुझ पे क़ुदरत ने कुछ ऐसे भी उतारे लम्हे भूल जाना तुझे मुमकिन तो नहीं है लेकिन जा तुझे बख़्श दिए साथ गुज़ारे लम्हे एक नुक़्ते में सिमट कर चले आए हैं सभी दास्तानों में थे फैले हुए सारे लम्हे हाए क्या दिन थे जिन्हें सोच के जी उठते हैं सोंधी मिट्टी की तरह कोरे कुँवारे लम्हे आज भी वज्ह-ए-सियादत हैं मिरे वास्ते वो तेरी क़ुर्बत ने जो दो-चार सँवारे लम्हे जैसे इल्हाम की सूरत वो उतरने लग जाएँ मेरे ही दिल पे 'क़मर' सब थके हारे लम्हे