बताऊँ क्या तुम्हें किस बोझ से दबा हुआ हूँ मैं अपने नफ़्स की तहज़ीब में लगा हुआ हूँ बिसात-ए-ज़ीस्त अगरचे बनी है मेरे लिए मगर पिटा हुआ मोहरा भी मैं बना हुआ हूँ यहाँ न छेड़ मिरे दोस्त ज़िक्र-ए-माज़ी को अभी तो लोगों की नज़रों में पारसा हुआ हूँ ज़रा सा सब्र खुलेंगे मिरे पर-ए-पर्वाज़ नया नया क़फ़स-ए-इश्क़ से रिहा हुआ हूँ किसी के हाथ के दाव पे हूँ रखा हुआ मैं किसी के ख़्वाबों की हद से भी मावरा हुआ हूँ मुझे न छेड़ ख़ुदा के लिए न छेड़ मुझे गले तलक मैं सवालात से भरा हुआ हूँ मैं जानता हूँ 'क़मर' क्या मक़ाम है मेरा यहाँ बुज़ुर्ग नहीं हैं सो मैं बड़ा हुआ हूँ