जी बहलता ही नहीं साँस की झंकारों से फोड़ लूँ सर न कहीं जिस्म की दीवारों से अपने रिसते हुए ज़ख़्मों पे छिड़क लेता हूँ राख झड़ती है जो एहसास के अँगारों से गीत गाऊँ तो लपक जाते हैं शो'ले दिल में साज़ छेड़ूँ तो निकलता है धुआँ तारों से कासा-ए-सर लिए फिरती हैं वफ़ाएँ अब भी अब भी तेशों की सदा आती है कोहसारों से ज़िंदा लाशें भी दुकानों में सजी हैं शायद बू-ए-ख़ूँ आती है खुलते हुए बाज़ारों से क्या मिरे अक्स में छुप जाएँगे उन के चेहरे इतना पूछे कोई उन आइना-बरदारों से प्यार हर-चंद झलकता है उन आँखों से मगर ज़ख़्म भरते हैं 'मुज़फ़्फ़र' कहीं तलवारों से