जी कर कभी मरे कभी मर कर जिया किए क्या कहिए हिज्र-ए-यार में क्या क्या किया किए बैठा हूँ फिर तसव्वुर-ए-ज़ुल्फ़-ए-दुता किए दिल को असीर-ए-हल्क़ा-ए-दाम-ए-बला किए मैं क्या हूँ मेरी कोशिश-ए-नाकाम क्या मिला बिगड़े हुए तिरे ही करम से बना किए वो राह तेरे वहशी ने तय कर लिए तमाम जिन में जनाब-ए-ख़िज़्र भटकते फिरा किए उस ने मिरी उम्मीद के दामन को भर दिया मैं ने कभी दराज़ जो दस्त-ए-दुआ' किए अल्लह रे ख़ुद-नुमाई-ए-हुस्न-ए-फ़रेब-कार आईना देख देख वो हैराँ हुआ किए तिरछी नज़र को फिर भी रहा पास-ए-एहतियात तीरों ने पर निशाने न हरगिज़ ख़ता किए कश्ती को 'नूर' बहर-ए-हवादिस में डाल कर बैठा है ना-ख़ुदा भी सुपुर्द-ए-ख़ुदा किए