जी में आता है कि फिर मिज़्गाँ को बरहम कीजिए कासा-ए-दिल ले के फिर दरयूज़ा-ए-ग़म कीजिए गूँजता था जिस से कोह-ए-बे-सुतून ओ दश्त-ए-नज्द गोश-ए-जाँ को फिर उन्हीं नालों का महरम कीजिए हुस्न-ए-बे-परवा को दे कर दावत-ए-लुत्फ़-ओ-करम इश्क़ के ज़ेर-ए-नगीं फिर हर दो आलम कीजिए दौर-ए-पेशीं की तरह फिर डालिए सीने में ज़ख़्म ज़ख़्म की लज़्ज़त से फिर तय्यार मरहम कीजिए सुब्ह से ता शाम रहिए क़िस्सा-ए-आरिज़ में गुम शाम से ता सुब्ह ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-बरहम कीजिए दिन के हंगामों को कीजिए दिल के सन्नाटे में ग़र्क़ रात की ख़ामोशियों को वक़्फ़-ए-मातम कीजिए दाइमी आलाम का ख़ूगर बना कर रूह को ना-गहानी हादसों की गर्दनें ख़म कीजिए ग़ैज़ की दौड़ी हुई है लहर सी असनाम में 'जोश' अब अहल-ए-हरम से दोस्ती कम कीजिए