काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए पहले घनेरी ज़ुल्फ़ परेशाँ तो कीजिए उस नाज़-ए-होश को कि है मूसा पे ताना-ज़न इक दिन नक़ाब उलट के पशीमाँ तो कीजिए उश्शाक़ बंदगान-ए-ख़ुदा हैं ख़ुदा नहीं थोड़ा सा नर्ख़-ए-हुस्न को अर्ज़ां तो कीजिए क़ुदरत को ख़ुद है हुस्न के अल्फ़ाज़ का लिहाज़ ईफ़ा भी हो ही जाएगा पैमाँ तो कीजिए ता-चंद रस्म-ए-जामा-दरी की हिकायतें तकलीफ़ यक-तबस्सुम-ए-पिन्हाँ तो कीजिए यूँ सर न होगी 'जोश' कभी इश्क़ की मुहिम दिल को ख़िरद से दस्त-ओ-गरेबाँ तो कीजिए