जी रहे या न रहे हर क़दम-ए-यार न छोड़ ऐ पतंगे तू कभी शम्अ' का अनवार न छोड़ शम्अ' तुझ को भी मुनासिब तू वहाँ तक जल जा सर से ता पाए तिलक रिश्ता-ए-ज़ुन्नार न छोड़ लब-ए-शीरीं से अगर हो न तिरा लब शीरीं कोहकन तू भी तो अब दामन-ए-कोहसार न छोड़ लीला हाथ आवे न आवे मिले जो नाक़ा-सवार हाल-ए-ग़म से वो करे मनअ' पर इज़हार न छोड़ लफ़्ज़ तू ने जो कहे हैं वो ही हक़ ऐ मंसूर कलिमतुल-हक़ को मगर ता-ब-दम-ए-दार न छोड़ ऐ ज़ुलेख़ा मह-ए-कनआँ' को ले दे माल मताअ' पेश बाए' के कोई मुश्तरी ज़िन्हार न छोड़ इस नसीहत को मिरी मान ब-क़ौल 'अफ़रीदी' जी रहे या न रहे पर क़दम-ए-यार न छोड़