जिधर से तीर चला कोई मेहरबाँ निकला तवक़्क़ुआ'त से बढ़ कर वो मेज़बाँ निकला समर से पहले शजर काट कर जला डाले कि जल्द-बाज़ बहुत अब के बाग़बाँ निकला अजीब रंग हुआ अब के मेरी नगरी का कि जो भी शहर में निकला वो बे-अमाँ निकला ये किस अज़ाब ने बस्ती को मेरी घेर लिया कि चूल्हे सर्द रहे याँ मगर धुआँ निकला सवाल ये है सबब किस से क़त्ल का पूछें कि जिस ने क़त्ल किया वो ही बे-ज़बाँ निकला हमारे बाद भी क्या ज़ेब-ए-दार होगा कोई यही सवाल मिरा ज़ेब-ए-दास्ताँ निकला हम अपनी अक़्ल को इल्ज़ाम दें कि क़िस्मत को हमारे दौर में रहज़न भी पासबाँ निकला जबीं झुकी तो ज़मीं उठ के आजिज़ी से मिली जो सर उठा तो बहुत दूर आसमाँ निकला रहे हैं हम तो 'करामत' गए दिनों के नक़ीब कि हम से अहद नया सख़्त बद-गुमाँ निकला