जिगर का दर्द जिगर में रहे तो अच्छा है जो बात घर की हो घर में रहे तो अच्छा है मआल-ए-कार से डरना तो बुज़दिली है मगर मआल-ए-कार नज़र में रहे तो अच्छा है जो गिर सके न कभी आँख से गुहर बन कर वो अश्क दीदा-ए-तर में रहे तो अच्छा है रवाँ-दवाँ है इधर उम्र जानिब-ए-मंज़िल इधर ये जाम सफ़र में रहे तो अच्छा है परे करो न अभी गेसुओं को आरिज़ से ये शाम क़ुर्ब-ए-सहर में रहे तो अच्छा है अजीब शय है हक़ीक़त में सोज़-ए-महरूमी फ़ुग़ाँ तलाश-ए-असर में रहे तो अच्छा है जले जले न जले आशियाँ मगर ये 'सहर' निगाह-ए-बर्क़-ओ-शरर में रहे तो अच्छा है