जिगर के चाक पे रक़्साँ ये प्यार की मिट्टी महक रही है तिरे इंतिज़ार की मिट्टी शिकस्ता हिज्र के मौसम में हम ने देखी है ख़िज़ाँ की शक्ल में फ़स्ल-ए-बहार की मिट्टी गुज़रते वक़्त की मानिंद मेरे हाथों से फिसल न जाए तिरे ए'तिबार की मिट्टी मैं उस के बदले में दे दूँ जहान की दौलत कहीं मिले जो मुझे कू-ए-यार की मिट्टी लगी है भीड़ फ़रिश्तों की ख़ैर-मक़्दम को ज़रूर है ये किसी दीन-दार की मिट्टी किसे ख़बर है कि हिजरत की आँधियों के सबब कहाँ को जाएगी किस के दयार की मिट्टी सिमट ही जाएगी इक रोज़ सुन ले ‘दीप-शिखा' ये तेरे जिस्म की तेरे हिसार की मिट्टी