जिगर की आग बुझे जिस से जल्द वो शय ला लगा के बर्फ़ में साक़ी सुराही-ए-मय ला क़दम को हाथ लगाता हूँ उठ कहीं घर चल ख़ुदा के वास्ते इतने तो पाँव मत फैला निकल के वादी-ए-वहशत से देख ऐ मजनूँ कि कैसी धूम से आता है नाक़ा-ए-लैला गिरा जो हाथ से फ़रहाद के कहीं तेशा दरून-ए-कोह से निकली सदा-ए-वावैला नज़ाकत इस गुल-ए-रा'ना की देखियो 'इंशा' नसीम-ए-सुब्ह जो छू जाए रंग हो मैला