वो क़रीब भी हैं तो क्या हुआ हमें अपने काम से काम है वही जुस्तुजू वही बे-ख़ुदी वही ज़िंदगी का निज़ाम है तलब इर्तिक़ा की असास है कि ग़म-ए-असीरी का नाम है कि जहाँ चमन है वहीं क़फ़स जहाँ दाना है वहीं दाम है हमा-वक़्त मुझ को यही है ग़म कि उन्हें है मेरा ख़याल कम मगर इस की फ़िक्र कभी नहीं कि मिरा जुनूँ भी तो ख़ाम है मुझे मय-कदे में किसी ने कल ये बताया मस्लक-ए-आशिक़ी जिसे बादा वज्ह-ए-सुरूर हो उसे बादा पीना हराम है ये है शान-ए-महफ़िल-ए-आशिक़ी कि तवील अर्सा गुज़र के भी वही बुत-कदे की सी सुब्ह है वही मय-कदे की सी शाम है ये है कैसा आलम-ए-बे-ख़ुदी नहीं होश उन की रज़ा का भी जो यही है 'कैफ़' जुनून-ए-ग़म तो जुनून-ए-ग़म को सलाम है