जिगर को दाग़ मैं मानिंद-ए-लाला क्या करता लबालब अपने लहू का पियाला क्या करता मिला न सर्व को कुछ अपनी रास्ती में फल कुलाह कज जो न करता तो लाला क्या करता जरीदा में रह-ए-पुर-ख़ून-ए-इश्क़ से गुज़रा जरस से क़ाफ़िले में बहस-ए-नाला क्या करता जुनून-ए-इश्क़ में रहना था इम्तियाज़ न कुछ चकोर तौक़-ए-गुलू मह का हाला क्या करता बचा किया उसे तोड़ा जो सर से दरिया के हबाब ले के ये ख़ाली पियाला क्या करता न खाया ग़ुस्सा कभी ख़्वांचे से क़िस्मत के फँसे जो हल्क़ में मैं वो निवाला क्या करता बला-ए-बद हुई दाग़ों से सर्दी-ए-काफ़ूर सुलूक नेक ज़राअत से ज़ाला क्या करता दिया नविश्ता न उस बुत को दिल के तूदे में ख़ुदा के घर का भला मैं क़बाला क्या करता सफ़ा हुआ न रियाज़त से नफ़्स-ए-अम्मारा कोई निजासत-ए-सग का इज़ाला क्या करता लगी है आग जो कम्बल कभी उड़ाया है तिरे बरहना से गर्मी दो-शाला क्या करता न करती अक़्ल अगर मुफ़्त आसमाँ की सैर कोई ये साथ वरक़ का रिसाला क्या करता मिरी तरफ़ जो उन्हें खींचती कशिश दिल की बुतों को बरहमनों का हवाला क्या करता किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का कोई ख़रीद के टूटा पियाला क्या करता उरूस-ए-दहर से बू-ए-वफ़ा नहीं आती भला जिगर का मैं उस के इज़ाला क्या करता मह-ए-दो-हफ़्ता भी होता तो लुत्फ़ था 'आतिश' अकेले पी के शराब-ए-दो-साला क्या करता