जिगर में दर्द न रख दिल में इज़्तिराब न रख

जिगर में दर्द न रख दिल में इज़्तिराब न रख
तू अपनी आँखों में उस बेवफ़ा के ख़्वाब न रख

जुनूँ-ज़दा ही निकालेंगे अब कोई सूरत
ख़िरद-परस्तों से उम्मीद-ए-इंक़लाब न रख

अमीर-ए-शहर की ख़ुशनूदियों से क्या हासिल
तू रेहन उस के लिए होंटों के गुलाब न रख

न जाने कौन से दरवाज़े से वो दाख़िल हो
किसी भी दौर में बंद अपने दिल के बाब न रख

सफ़र अगर है ज़रूरी तो जा मगर ऐ दोस्त
किसी भी शख़्स को हमराह-ओ-हम-रिकाब न रख

वो अपने फ़न की बदौलत कहाँ नहीं मक़्बूल
हुनर-वरों के सर एहसान-ए-इंतिख़ाब न रख

शबाब तो है ब-ज़ात-ए-ख़ुद एक हंगामा
तू मुझ पे तोहमत-ए-हंगामा-ए-शबाब न रख

ख़ुद अपना तज्ज़िया कर अपनी ख़ामियों को ढूँड
किसी की ज़ात पे इल्ज़ाम-ए-इज्तिनाब न रख

जो होना है यहीं हो जाए ऐ मिरे मौला
मिरा हिसाब सर-ए-रोज़-ए-एहतिसाब न रख

जो मुझ से मिलना है 'रहबर' तो मिल खुले दिल से
कि दरमियाँ कोई पर्दा कोई हिजाब न रख


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