जिला-वतन हूँ मिरा घर पुकारता है मुझे उदास नाम खुला दर पुकारता है मुझे किसी की चाप मुसलसल सुनाई देती है सफ़र में कोई बराबर पुकारता है मुझे सदफ़ हूँ लहरें दर-ए-जिस्म खटखटाती हैं कनार-ए-आब वो गौहर पुकारता है मुझे हर एक मोड़ मिरे पाँव से लिपटता है हर एक मील का पत्थर पुकारता है मुझे फँसा हुआ है मिरे हाथ की लकीरों में मिरा हुमा-ए-मुक़द्दर पुकारता है मुझे न जाने क्या था कि मैं दूरियों में खो आया वो अपने पास बुला कर पुकारता है मुझे चली है शाम-ए-शफ़क़-रंग बादबाँ ले कर दबीज़ शब का समुंदर पुकारता है मुझे परों का बोझ झटक कर मैं उड़ गया हूँ 'नसीम' ज़मीन पर मिरा पैकर पुकारता है मुझे