जिन के ज़ुल्मों को हम सह गए वो हमें बेवफ़ा कह गए ख़्वाब वो मिल के देखे हुए आँसुओं में सभी बह गए तुम न आए नज़र दूर तक राह हम देखते रह गए रो पड़ा गाँव में जा के मैं मेरे पुश्तैनी घर ढह गए ज़िंदगी के हर इक मोड़ पर ज़ख़्म जलते हुए रह गए 'मुंतज़िर' ढाल कर शेर में अपनी बातों को क्यों कह गए