जिन के पाँव भी नहीं हैं उन को सर कहते हैं लोग क्या ज़माना है कि पौदों को शजर कहते हैं लोग एक आँसू भी न टपका आज तक जिस आँख से क्या क़यामत है उसी को चश्म-ए-तर कहते हैं लोग अब ज़माने की कसौटी का यही मेआ'र है सीप से निकला नहीं फिर भी गुहर कहते हैं लोग मस्लहत की बेड़ियों में जब से जकड़ी है ज़बाँ हम नज़र वालों को अक्सर कम नज़र कहते हैं लोग इस लिए हर आँख से अब नींद रुख़्सत हो गई दिन की नाकामी का क़िस्सा रात भर कहते हैं लोग क्या ज़माना आ गया है पुर-सुकूँ लहजे में अब चार दिन की चाँदनी को हम-सफ़र कहते हैं लोग जिस की सूरत देख कर कुछ लोग पागल हो गए कुछ न कुछ हम पर भी उस का है असर कहते हैं लोग फ़र्क़ क्या पड़ता है इस से 'तश्ना' तेरी ज़ात पर कहने दे जल कर तुझे कुछ भी अगर कहते हैं लोग