जिन के रस्तों से सदा मैं ने हटाए पत्थर वो मिरे सर के लिए ढूँड के लाए पत्थर मैं ने देखा कि मिरे शीशा-ए-जाँ पर इक दिन तेरे कूचे में हर इक सम्त से आए पत्थर मैं जिसे देख के हाथों में दुआएँ पहनूँ वो मुझे देख के हाथों में उठाए पत्थर जो मुझे तेरे तअ'ल्लुक़ से मिले मैं ने वही कभी चूमे कभी आँखों से लगाए पत्थर मैं उसे ज़ख़्म-ए-मोहब्बत पे सजा कर रक्खूँ दश्त-ए-उल्फ़त से जो मेरे लिए आए पत्थर तेरी आँखों के तग़ाफ़ुल से तिरे पहलू में जब मिरे ख़्वाब नहाए तो नहाए पत्थर उस की ख़ुश्बू की तलब में जो मैं घर से निकली उस ने फूलों की तरह मुझ पे लुटाए पत्थर वो हैं फूलों की तरह मेरी नज़र में 'अफ़रोज़' जितने भी मेरे लहू में हैं नहाए पत्थर