जिन से उम्मीद-ए-करम थी वो सितमगर निकले हम जिन्हें फूल समझते थे वो पत्थर निकले ग़म के पर्दे में निहाँ ख़ुशियों के मंज़र निकले इस अंधेरे में उजालों के समुंदर निकले चल रही है यहाँ हर सम्त बला की आँधी ख़ैर इस में है कोई घर से न बाहर निकले मेरी अच्छाई छुपा ली मिरे हमदर्दों ने मेरी रुस्वाई बड़ी धूम से ले कर निकले कितने अरमान से दामन पे सजाया था उन्हें हाए ये फूल तो काँटे से भी बद-तर निकले मैं ने जिन हाथों को मज़बूत किया था 'नय्यर' आज उन हाथों से मेरे लिए ख़ंजर निकले