जीने की है उम्मीद न मरने का यक़ीं है अब दिल का ये आलम है न दुनिया है न दीं है गुम हैं रह-ए-तस्लीम में तालिब भी तलब भी सज्दा ही दर-ए-यार है सज्दा ही जबीं है कुछ मज़हर-ए-बातिन हूँ तो कुछ महरम-ए-ज़ाहिर मेरी ही वो हस्ती है कि है और नहीं है ईज़ा के सिवा लज़्ज़त-ए-ईज़ा भी मिलेगी क्यूँ जल्वा-गह-ए-होश यहाँ दिल भी कहीं है मायूस सही हसरती-ए-मौत हूँ 'फ़ानी' किस मुँह से कहूँ दिल में तमन्ना ही नहीं है