जीने वाला ये समझता नहीं सौदाई है ज़िंदगी मौत को भी साथ लगा लाई है ये भी मुश्ताक़-अदा वो भी तमन्नाई है खिंच के दुनिया तिरे कूचे में चली आई है खुल गए नज़्अ' में असरार-ए-तिलिस्म-ए-हस्ती ज़ीस्त कहते हैं जिसे मौत की अंगड़ाई है कह गए अहल-ए-चमन ये तिरे दीवानों से होश में आओ ज़माने में बहार आई है मैं किसी रोज़ दिखाऊँ दिल-ए-सद-चाक-अदा तुझ को मालूम तो हो क्या तिरी अंगड़ाई है ढूँढती क्यूँ न रहे उस को अबद तक दुनिया जिस ने छुपने की अज़ल ही में क़सम खाई है फूट कर पाँव के छाले मिरे लाए ये रंग बाग़ तो बाग़ है सहरा में बहार आई है जल्वा-ए-रोज़-ए-अज़ल ने मुझे बेचैन किया पहली दुनिया में ये पहली तिरी अंगड़ाई है जिस की सेहत के लिए आप दुआएँ माँगें ऐसे बीमार को भी मौत कहीं आई है तेग़-ए-क़ातिल को पस-ए-क़त्ल नदामत होगी दम से 'बिस्मिल' ही के ये मा'रका-आराई है