जिन्हें हम ज़िंदगानी में सदा दिल में बसाते हैं न जाने क्यों हमें वो ख़ून के आँसू रुलाते हैं ख़ुदा का वास्ता है अब तो आ जा मेरे मस्कन में कि तेरा रास्ता हम अपनी पलकों से सजाते हैं महाज़-ए-इश्क़ में दुश्वारियाँ तो सब को मिलती हैं मगर जो हों क़दम साबित वही मंज़िल को पाते हैं न जाने कितने घर सैलाब ने ग़र्क़ाब कर डाले अजब हैं लोग फिर भी घर लब-ए-साहिल बनाते हैं हयात-ओ-मर्ग जिन के नाम हम ने अपनी कर डाली सज़ा वो क़त्ल होने की सर-ए-महफ़िल सुनाते हैं छुपा कर अश्क आँखों में 'हिरा' अब सोचती हूँ ये नहीं होती हैं जब जाएँ तो दुख किस को सुनाते हैं