जिंस-ए-मख़लूत हैं और अपने ही आज़ार में हैं हम कि सरकार से बाहर हैं न सरकार में हैं आब आते ही चमक उठते हैं सब नक़्श-ओ-निगार ख़ाक में भी वही जौहर हैं जो तलवार में हैं सब फ़रोशिंदा-ए-हैरत हूँ ज़रूरी तो नहीं हम से बे-ज़ार भी इस रौनक़-ए-बाज़ार में हैं हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक ऐश जितने हैं इसी कुंज-ए-कम-आसार में हैं हो चुका अद्ल दुकाँ बंद कर ऐ ताजिर-ए-हक़ ये सज़ा कम है कि हाज़िर तिरे दरबार में हैं