जान का आज़ार है बीमारी-ए-दुनिया नहीं ज़ात तक महदूद हो जाएँ तो कुछ ख़तरा नहीं अब हिफ़ाज़त जितनी है महबूस हो जाने में है ख़ुद के बाहर घूमने फिरने का अब मौक़ा नहीं उस से मिलना आबशारों से गुज़रना था मगर ख़ौफ़ का वो कौन सा तूफ़ाँ था जो आया नहीं अब के बिछड़े कब मिलेंगे अब की बार इक ये सवाल हम ने भी पूछा नहीं उस ने भी बतलाया नहीं मो'तबर कितना भी हो हर वास्ता मश्कूक है जो तसव्वुर में लिखा वो ख़त भी पहुँचाया नहीं मुझ में इक बच्चा जो मुज़्मर है बहुत मसरूर है इन दिनों दुनिया से उस का मुतलक़न रिश्ता नहीं मसअला कोई भी हो 'अरशद' मुहीत-ए-इश्क़ है जो ग़ज़ल का राह-रौ हो राह से हटता नहीं