जिस दम ख़याल-ए-यार की बे-चेहरगी गई आईना-ए-फ़िराक़ से बे-रौनक़ी गई बैठा ग़ुबार-ए-हसरत-ए-ता'मीर अब की बार शौक़-ए-सफ़र की राह में आवारगी गई वहशत हमारे ज़ब्त का उजड़ा मज़ार है लाखों जतन किए न सरासीमगी गई हम से क़बा-ए-दर्द पे तारे न टंक सके कस्ब-ए-हुनर की ताक में वामांदगी गई होने का ए'तिबार बनाती सहर के साथ किरनों की बे-नियाज़ तर-ओ-ताज़गी गई