जिस दिन से राब्ता मिरा दिलबर से कट गया रिश्ता नदी का जैसे समुंदर से कट गया हम लोग आ के बस गए हैं जब से शहर में अख़्लाक़ गाँव वाला वो घर घर से कट गया हर कोई आज ग़र्क़ है अपनी ही ज़ात में यूँ रफ़्ता रफ़्ता आदमी बाहर से कट गया मुमकिन है रोज़-ए-हश्र शहीदों में हो शुमार अपना गला तो प्यार के ख़ंजर से कट गया नादिम हैं 'नज़्र' हम तो तरक़्क़ी में शहर की बुढ़िया का झोंपड़ा कहीं मंज़र से कट गया