मैं उसे देख रही हूँ बड़ी हैरानी से जो मुझे भूल गया इस क़दर आसानी से ख़ुद से घबरा के यही कहती हूँ औरों की तरह ख़ौफ़ आता है मुझे शहर की वीरानी से अब किसी और सलीक़े से सताए दुनिया जी बदलने लगा असबाब-ए-परेशानी से तन को ढाँपे हुए फिरते हैं सभी लोग यहाँ शर्म आती है किसे सोच की उर्यानी से ऐ फ़लक छोड़ दे बेयार-ओ-मददगार हमें दम घुटा जाता है अब तेरी निगहबानी से मैं उसे ख़्वाब समझ सकती हूँ लेकिन 'अम्बर' लम्स जाता नहीं उस का मिरी पेशानी से