जिस को अपना नक़्श-ए-पा मिलता नहीं उस को मंज़िल का पता मिलता नहीं अब तो बज़्म-ए-नाज़ में भी आप की मेरे दिल को आसरा मिलता नहीं ज़र्रे ज़र्रे से तजल्ली है अयाँ कौन कहता है ख़ुदा मिलता नहीं याद-ए-जानाँ की इनायत देखिए ज़ख़्म-ए-दिल को आइना मिलता नहीं कल तो मिल जाते थे हर एक मोड़ पर आज कोई रहनुमा मिलता नहीं इस जहान-ए-ग़ैर में अपना मुझे कोई भी ग़म के सिवा मिलता नहीं क्या पता उन का बताएगा भला 'शाद' को ख़ुद का पता मिलता नहीं