जिस को कहते हैं क़ज़ा या मौत जिस का नाम है वाक़ई वो दाइमी राहत का इक पैग़ाम है इल्तिज़ाम-ए-चारासाज़ी इक ख़याल-ए-ख़ाम है चारागर मेरे लिए तकलीफ़ में आराम है उफ़ रे ये बेगानगी हमदर्द हो तो कौन हो एक दिल था वो भी सर्फ़-ए-कसरत-ए-आलाम है अर्सा-ए-रफ़्ता पे नज़रें पड़ रही हैं वहम की ख़्वाब की तस्वीर है या ज़िंदगी की शाम है अपनी हस्ती का भी अब आता नहीं मुझ को यक़ीं अल-हज़र कैसा जुनून-ए-शौक़ का अंजाम है ये हक़ीक़त है कि दोनों फ़ितरतन मा'सूम हैं पाक-दामन हुस्न भी है इश्क़ भी ख़ुश-नाम है देखते ही रूह में इक कैफ़ियत सी आ गई साक़िया क्या बादा-ए-रंगीं का प्यारा जाम है अब तो 'फ़ाइक़' और भी मुश्किल से कुछ कटने लगी इश्क़ भी तस्कीन-ए-ख़ातिर के लिए नाकाम है