इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए सब किताबें सफ़्हा-ए-हर्फ़-ए-ज़ियाँ खोले हुए इक जुदाई पर हूँ हैराँ जिस तरह कोई पहाड़ क़त्ल पर हाबील के अपना दहाँ खोले हुए बद-दुआ-ए-ना-रसाई काम अपना कर चुकी अपनी सारी परतें है क्यूँ आसमाँ खोले हुए बंद रक्खो मुट्ठियों को रेत उड़ती है यहाँ जाने कौन आ जाए दस्त-ए-राएगाँ खोले हुए पल दो पल का साथ है अब रौशनी का चल पड़ें शाम है इक कतबा-ए-क़ब्र-ए-जवाँ खोले हुए साहिलों पे लिक्खी तहरीर-ए-हवा पढ़ता भी कौन कश्तियाँ थीं ख़्वाहिशों के बादबाँ खोले हुए