जिस को कि दस्तरस हुई दामान-ए-यार तक गुलशन में दहर के वही पहुँचा बहार तक जूँ ख़ार उस से तो नहीं होते जुदा रक़ीब मुझ को रसाई क्यों कि हो उस गुल-एज़ार तक अबरू कहाँ ने वज़्अ निकाली है ये नई रहता है तीर-ए-ग़म्ज़ा मिरे दिल में मार तक प्यारे कहीं नज़र न लगे आइने की आज बे-तरह तुझ को रहता है वो ऐ निगार तक ग़फ़लत में तेरी काम हमारा तमाम है कोई कह दे इतना यार-ए-तग़ाफ़ुल-शिआ'र तक हम सिर्फ़ देखने को हैं महरूम और है ग़ैरों को दस्तरस तिरे बोस-ओ-कनार तक साक़ी शिताब जाम-ए-सुबूही पिला मुझे क्या जानिए बचूँ न बचूँ मैं ख़ुमार तक दुश्मन है मेरी जान का आलम तिरे लिए यारो कोई सुनाओ ये उस दोस्त-दार तक तुझ बज़्म में जो बार 'जहाँदार' को नहीं रहता है रहगुज़र में तुझे बार बार तक