जिस को मैं चाँद समझता था दरीचा निकला क़ैद-ए-तन्हाई में जीने का सहारा निकला ख़ुद जो बे-यार-ओ-मददगार पड़ा था सर-ए-राह वो मिरे वास्ते इक पेड़ घनेरा निकला दफ़अ'तन डाल लिए मैं ने लबों पर ताले बज़्म-ए-सद-रंग में जब ज़िक्र तुम्हारा निकला हुईं ख़ामोश जो अतराफ़ की सब आवाज़ें मेरे अंदर से कोई शोर मचाता निकला आसमाँ ने मिरे रस्ते में बिछाईं आँखें बीच दरिया में मिरे वास्ते रस्ता निकला बस ज़रा ज़ाविया-ए-दीद जो बदला मैं ने दुश्मन-ए-जाँ भी मिरा चाहने वाला निकला यूँ लगा जैसे कोई देता है आवाज़ मुझे पावँ रखते ही मैं सहरा के उधर जा निकला आलम-ए-फ़िक्र-ओ-तजस्सुस पे है तारी सकता एक ज़र्रे के हुए टुकड़े तो क्या क्या निकला जिस के सज्दे को जबीं ख़म हुई ख़ुर्शीदों की बत्न से तीरा-शबी के वो उजाला निकला रात बैठी थी सर-ए-राह बिखेरे गेसू अपनी दीवार से मैं बन के हयूला निकला आँच हल्की सी जो लग जाए पिघल जाता है तेरा एहसास भी 'यावर' मिरे जैसा निकला