कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का मिज़ाज कौन समझता है बहते पानी का ग़ुरूब होते ही सूरज उभरने लगता है मिरे वजूद में सहरा ज़रर-फ़िशानी का वो पेड़ जिस में फ़क़त बे-लिबास शाख़ें थीं उसी से काम लिया मैं ने साएबानी का करूँ कहाँ से शुरूअ' और कहाँ पे ख़त्म करूँ सिरा ही मिलता नहीं वक़्त की कहानी का मुझे गिनाए गए वस्फ़ मेरे दुश्मन के अता किया गया मंसब क़सीदा-ख़्वानी का बहार सुर्ख़-क़बा है चमन शरार-ब-दोश हमारे शहर में मौसम है गुल-फ़िशानी का क़सम थी अब्र को भी मेहरबाँ न होने की मुझे भी करना था इज़हार सख़्त-जानी का क़दम बढ़ाना मिरा वादी-ए-तहय्युर में तिलिस्म टूटना सहरा-ए-बे-करानी का ये खिड़कियाँ ये दरीचे नहीं हैं आँखें हैं मकान में भी है एहसास बे-मकानी का वो गुल-मिज़ाज जो मसरूफ़-ए-गु्फ़्तुगू हो कभी ख़याल आता है दरियाओं की रवानी का वो तर्जुमे के लिए उस के ख़ाल-ओ-ख़द न पढ़े जिसे हुनर नहीं आता है तर्जुमानी का चलन से हो गया बाहर तो और क्या करता लिबास उतार दिया मैं ने बे-ज़बानी का उतर के हर्फ़ के बातिन में देखना 'यावर' जो रक़्स देखना हो शो'ला-ए-मआ'नी का