जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है मरहम-ए-वस्ल उस कूँ शाफ़ी है होश खोने को मय नहीं दरकार गर्दिश-ए-चश्म-ए-मस्त काफ़ी है बे-ख़ती में अयाँ है सब्ज़ा-ए-ख़त तेरे आरिज़ में बस कि साफ़ी है बख़्श मेरे गुनाह कूँ आ मिल ख़त नहीं ये ख़त-ए-मुआफ़ी है गुल-बदन कूँ कहो कि सैर कूँ आ आज हर गुल चमन में लाफ़ी है ग़ज़ब-ए-यार सीं न हो ग़मगीं जौर नहीं मेहर की तलाफ़ी है रिश्ता-ए-आह-ए-आतिशीं सें 'सिराज' मुज कूँ हर रात शोला-बाफ़ी है